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बाजार संरचना

बाजार संरचना
28 Nov 2022 103 Views

आर्थिक सिद्धांतों के जरिये राजनीति की समझ

यह 1960 के दशक की बात है जब दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘संयुक्त’ ऑनर्स (प्रतिष्ठा) डिग्री का चलन था। उसकी संकल्पना ऑक्सफर्ड के पीपीई (दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र) या कैंब्रिज स्नातक-त्रयी के आधार पर की गई थी। मेरे ख्याल से 1966 में उन्होंने इसे बंद कर दिया। अगर उन्होंने उसे बीए पास कोर्स से एक पांत ऊपर रखने के बजाय वास्तव में और समृद्ध-सशक्त बनाया होता तो आज हमारे पास कहीं बेहतर जानकारी वाले ज्ञानी सामाजिक-विज्ञान स्नातक होते। इसका कारण यही है कि वास्तव में राजनीति, आर्थिकी और दर्शन को एक दूसरे से विलग कर अलग-अलग नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। इससे वैसी एकांगी मानसिकता बनती है, जिससे व्यक्ति कभी बाहर ही नहीं निकल पाता।

संयुक्त ऑनर्स कोर्स को जल्दबाजी में समाप्त करने का एक खराब नतीजा यही निकला कि शिक्षित भारतीयों को एक सच्चाई समझने में करीब 30 वर्ष लग गए। यही सच्चाई कि राजनीतिक व्यवहार और आर्थिक नीतियां भले ही एक दूसरे से स्वतंत्र हों, लेकिन राजनीतिशास्त्र के विद्वानों एवं विश्लेषकों के लिए कम से कम आर्थिक सिद्धांतों की कुछ बुनियादी समझ के अभाव में राजनीतिक व्यवहार समझना आसान नहीं।

यहां मैं यही बात कहना चाहता हूं कि राजनीतिक व्यवहार को वास्तव में एक अल्पाधिकारी बाजार संरचना की भांति देखा जा सकता है, क्योंकि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी तो वही है, जिसे अर्थशास्त्र में अल्पाधिकार प्रतिस्पर्धा की संज्ञा दी जाती है, जिसमें कुछ स्वतंत्र उत्पादक ही एक दूसरे से मुकाबला करते हैं। यदि आप इस पर किंचित भी विचार करें तो पाएंगे कि भारत में असल में कैसी राजनीतिक व्यवस्था है। ऐसे में इस पर गौर करना बहुत तार्किक है कि अर्थशास्त्र ऐसे अल्पाधिकारी उत्पादकों के व्यवहार का विश्लेषण कैसे करता है।

अर्थशास्त्र में अल्पाधिकारी प्रतिस्पर्धा के पांच प्रकारों की चर्चा की गई है। ये हैं-कार्टेल्स, कॉर्नो, स्टैकलबर्ग, बर्ट्रेंड और प्रतिस्पर्धी बाजार। वैसे तो सभी, लेकिन इसमें अंतिम पहलू को छोड़कर शेष राजनीति को प्रतिबिंबित करते हैं।

कार्टेलाइजेशन का आशय तो मिलीभगत से ही है। सभी जानते हैं कि कंपनियां मिलीभगत या साठगांठ करती हैं, लेकिन राजनीतिक दलों में इसे आप हर समय देख सकते हैं और यहां तक कि तब भी जब मुकाबले में केवल दो ही दल हों। केंद्रीय कक्ष तो शायद इसी सुविधा के लिए है। बहरहाल साठगांठ उतनी कारगर नहीं होती, क्योंकि दगाबाजी में एक अंतर्निहित इंसेंटिव (प्रोत्साहन) होता है। यही कारण है कि राजनीति में कार्टेल के पर्याय गठबंधन बहुत अस्थिर होते हैं।

फिर आती है कि स्टैकलबर्ग श्रेणी की प्रतिस्पर्धा, जहां एक कंपनी बाजार की सिरमौर होती है और अन्य कंपनियां उसकी अनुगामी यानी नक्शेकदम पर चलने वालीं। हेनरिक फ्रीहरर वॉन स्टैकलबर्ग एक जर्मन अर्थशास्त्री थे। वह नाजी पार्टी के सदस्य भी रहे। स्टैकलबर्ग मॉडल भारतीय राजनीति के खांचे में एकदम मुफीद बैठता है। देश में 1990 तक कांग्रेस ही अगुआ थी और अन्य पार्टियां मुख्य रूप से कोरे-फर्जी समाजवाद के जरिये उसका अनुगमन करती थीं। अब वे भाजपा और उसके हिंदुत्व की राह पकड़ रही हैं। इस मॉडल की एक आधारभूत अर्थशास्त्रीय आवश्यकता यही है कि कंपनियों बाजार संरचना को अपने समरूप उत्पाद ही बेचने चाहिए। इस मॉडल में कंपनियां उत्पादन के दम पर प्रतिस्पर्धा करती हैं और यदि राजनीतिक दलों के संदर्भ में देखें तो उसे लचर रूप से परिभाषित सुशासन के दावे के समान रखा जा सकता है। यानी कथित सुशासन के जरिये ही राजनीतिक दल इस मॉडल पर दांव लगा सकते हैं।

अब हमें कॉर्नो की चर्चा करनी है। यह अल्पाधिकार परिदृश्य का बहुत पुराना स्वरूप है। अंतोनी ऑगस्तिन कॉर्नो फ्रांसीसी दार्शनिक और गणितज्ञ थे। अपने खाली समय में वह अर्थशास्त्र के बारे में विचार किया करते। उनकी अल्पाधिकार की श्रेणी में सभी कंपनियां एक ही प्रकार की वस्तुएं उत्पादित बाजार संरचना करतीं और बाजार हिस्सेदारी के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। राजनीति में इसका उदाहरण लोकलुभावनवाद और उसके जरिये वोट प्रतिशत हासिल करने की कवायद का दिया जा सकता है।

अल्पाधिकार के एक अन्य बर्ट्रेंड मॉडल का नामकरण भी एक और फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जोसेफ लुई फ्रांस्वा बर्ट्रेंड के नाम पर हुआ। उनका कहना था कि ऐसे परिदृश्य में सब कुछ इसी पर निर्भर करता है कि क्या उत्पाद एकसमान हैं या उनमें विविधता है। राजनीति से इसमें कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) का उदाहरण लिया जा सकता है। वे पूरी तरह सजातीय हैं और यही कारण है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस के वोटों में सेंधमारी कर रही है। वहीं आप और भाजपा में अंतर है। अंतर यही कि जहां दोनों ही कल्याणकारी किस्म की राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन बाजार संरचना आप हिंदू एजेंडा पर आगे नहीं बढ़ती, क्योंकि वह उस मोर्चे पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती।ॉ

अंत में प्रतिस्पर्धी बाजारों के सिद्धांत की बारी आती है। मेरे ख्याल से यह राजनीति पर लागू नहीं होता, क्योंकि इसके लिए किसी बाजार में प्रवेश के बाद लागत वसूली का एक बहुत ही सख्त प्रावधान है। बुनियादी बात यही है कि किसी भी नाकामी के मामले में सभी लागत वसूलनी ही होती हैं। राजनीति में यह काम नहीं करता। यहां लागत डूब गई तो समझिए हमेशा के लिए डूबी।

अब देखते हैं कि ये सिद्धांत भारत में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के स्वरूप की व्याख्या किस प्रकार कर सकते हैं। आरंभिक बिंदु यही है कि बड़ी संख्या वाला लोगों का कोई भी समूह एक राजनीतिक दल बना सकता है या कम से कम दबाव समूह ही बाजार संरचना गठित कर सकता है, जो विधायी सदन में या तो पैसों की मांग करे या सीटों की। आप देख सकते हैं कि अल्पाधिकार प्रतिस्पर्धा के सभी तत्त्व यहां उपस्थित हैं। मसलन-चुनिंदा उत्पादक, उनकी परस्पर निर्भरता, बड़ी संख्या में खरीदार और अपने मुनाफे (सीटों) और बाजार हिस्सेदारी (वोट प्रतिशत) को अधिकतम करने के लिए निरंतर किए जाने वाले प्रयास।

आपके मन में सवाल आ सकता है कि ऐसा है ‘तब’ क्या? असल में इसके पीछे अपने राजनीतिक पंडितों को यही दर्शाने की ही मंशा थी कि हमारे पास एक ऐसा ढांचा उपलब्ध है, जिसके जरिये भारतीय राजनीति की कहीं बेहतर व्याख्या की जा सकती है। यह ढांचा यकीनन उन कमजोर कड़ियों वाले असंतोषजनक तौर-तरीकों से बेहतर है, जिनके दम पर कोई भी ऐरा-गैरा स्वयंभू विशेषज्ञ बन सकता है। और अंत में एक दुस्साहसिक विचार कि विश्वविद्यालयों को ऑनर्स पाठ्यक्रमों को अवनत और पास कोर्स को उन्नत करना चाहिए। यहीं वास्तविक मूल्य निहित है।

बाजार की अवधारणा। इसकी संरचना और प्रजातियों

के विकास वस्तु उत्पादन बाजार संबंधों के उद्भव के लिए एक शर्त बन गया है। तो वहाँ एक बाजार अवधारणा थी। आर्थिक संबंधों की यह वस्तु तेजी से विकसित करने के लिए शुरू कर दिया। यह न केवल उत्पादों है कि श्रम का परिणाम है है। भूमि, जंगलों और एक प्राकृतिक तरीके में बनाए गए अन्य वस्तुओं के बाजार क्षेत्रों में। हमें बाजार की अवधारणा को और अधिक विस्तार से विचार करें।

यह आर्थिक पदार्थ के साथ संबंधों को जो के उत्पादन का एक परिणाम के रूप में गठन किया गया है, हैंडलिंग, वस्तुओं की बिक्री, नकदी और अन्य कीमती सामान की एक प्रणाली है। बाजार संपर्क पूरी तरह से बिक्री सिद्धांतों पर आधारित है।

प्रारंभ में, माल की बड़े पैमाने पर बिक्री के स्थानों में बाजारों थे। धीरे-धीरे शहर और शॉपिंग मॉल में से इन बिंदुओं पर गठन किया था।

विक्रेताओं और खरीदारों - यह है बाजार सहभागियों। इन व्यक्तियों को, हो सकता है फर्मों , बाजार संरचना बाजार संरचना और यहां तक कि राज्य। विषयों में से कुछ दोनों विक्रेता और खरीदार का कार्य करते हैं। यह रिश्तों की एक श्रृंखला है, जो बिक्री के लिए आधार है विकसित की है।

बाजार की वस्तुओं के रूप में पैसे और सामान कर रहे हैं। इस उत्पाद को एक अलग आकार हो सकता बाजार संरचना है। यह उत्पाद है, जो श्रम का परिणाम है, साथ ही उत्पादन (पूंजी, श्रम, भूमि, और इतने पर। डी) के लिए सभी संभव वित्तीय संसाधनों प्रदर्शन कर पैसे की भूमिका के कारकों। लेकिन सबसे आम पैसे के ही बराबर हैं।

बाजार में कारोबार अलग हैं। यहाँ श्रम बाजार, पूंजी और वस्तुओं और सेवाओं का आवंटन।

श्रम बाजार नौकरी रिक्तियों और इन पदों के लिए आवेदकों का एक सेट का प्रतिनिधित्व करती है। बाजार की आधुनिक अवधारणा मूल से थोड़ा अलग है। आज, तकनीकी विकास के लिए धन्यवाद, व्यापार बाहर लगभग कंप्यूटर द्वारा किया जा सकता है।

वित्तीय बाजार की अवधारणा को किसी भी रूप में पूंजी का कारोबार, नकदी भी शामिल है। किसी भी देश के आर्थिक गतिविधि के अधिक प्रभावी कार्यान्वयन के लिए बाजार संबंधों की इस श्रेणी के एक विकसित संरचना की आवश्यकता है। यह का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा विदेशी मुद्रा बाजार है। यह भी कीमती धातु और पत्थर बाजार वहन करती है।

विदेशी मुद्रा बाजार की अवधारणा को बाजार के क्षेत्र है, जो विदेशी मुद्रा रूपांतरण, या किसी से संबंधित है में संबंधों के संपूर्ण दायरे को शामिल प्रतिभूतियों के बराबर में। यह भी एक निवेश मुद्रा पूंजी भी शामिल है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, सभी कार्यों को किसी भी दुनिया मुद्रा से प्रदर्शन कर रहे हैं।

बाजार विशेषज्ञता के अनुसार विभाजित हैं। यह श्रम विभाजन का एक रूप है, जो क्षेत्र या उद्योगों पर निर्भर करता है।

बाजार की अवधारणा को कई कारणों से उभरा। सबसे पहले, विकलांग अधिकार के संबंध में। यही कारण है कि संसाधनों की कमी नहीं है, है। एक व्यक्ति को केवल धन की एक निश्चित राशि का उत्पादन कर सकते हैं, तो अन्य की खरीद में की जरूरत है माल के प्रकार या पहले से ही मौजूदा उत्पादों के लिए अपने विनिमय।

बाजार की जरूरत के लिए एक और कारण आर्थिक व्यक्तिगत उत्पादकों है। हर कोई जो फैसला करता है और चुनता माल किस तरह का उत्पादन किया है और क्या मात्रा में कर रहे हैं।

मुख्य बाजार द्वारा किया जाता समारोह, स्तर को विनियमित करने के लिए है आपूर्ति और मांग के, और साथ ही मूल्य स्तर के गठन।

इसके प्रभाव के तहत लागत को कम करने और उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए नए तकनीकी घटनाओं को पेश करने की आवश्यकता है।

बाजार हितधारकों के लिए जानकारी का एक स्रोत है।

इसके अलावा, यह खरीदारों और विक्रेताओं, जो एक साथी का चयन करने का अधिकार है के बीच एक मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।

बाजार चयन के परिणाम के रूप में केवल वे प्रतिभागियों को और अधिक अवसर और संभावनाओं है जीवित रहते हैं।

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1. संगठित पूंजी बाजार(FORMAL OR ORGANISED CAPITAL MARKET)- संगठित पूंजी बाजार के अंतर्गत वित्त संबंधी कार्य पंजीबद्ध विभिन्न वित्तीय संस्थाएं करती हैं, जो विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों से निजी वस्तुओं को एकत्र कर दीर्घकालीन पूंजी की व्यवस्था करती है जैसे-

भारतीय यूनिट ट्रस्ट (UTI), जीवन बीमा निगम (LIC), भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक(SIDBI), वाणिज्य बैंक, उद्योग वित्त निगम (IFC), भारतीय उद्योग साख एवं विनियोग निगम (ICICI, भारतीय उद्योग विकास बैंक (IDBI), राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम (NIDC), भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण बैंक (IRBI), सामान्य बीमा निगम (GIC), राज्य वित्तीय संस्थाएं (SFCs), आवासीय वित बैंक (RFB) आदि प्रमुख है‌। इन सभी का नियंत्रण भारतीय विनियम बोर्ड (SEBI) द्वारा किया जाता है।

2. असंगठित या गैर संगठित बाजार (INTERNAL OR UNORGANISED MARKET)- इसे अनौपचारिक बाजार भी कहा जाता है, इसमें देसी बैंकर्स, साहूकार, महाजन आदि प्रमुख होते हैं। काले धन का बहुत बड़ा भाग गए असंगठित क्षेत्र में वित्त व्यवस्था करता है। यह उद्योग व्यापार तथा कृषि क्षेत्रों में पूंजी का विनियोजन करते हैं। इनकी ब्याज दरें और वित्तीय नीति कभी भी एक समान नहीं होती है। जिसके परिणाम स्वरुप यह साहूकार कभी-कभी ऊंची दर पर ऋण देकर अधिक लाभ कमाने का प्रयास करते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक इन पर नियंत्रण करने के लिए प्रयास करता है।

प्राथमिक पूंजी बाजार क्या है

prathmik punji bajar kya hai;प्राथमिक पूंजी बाजार का आशय उस बाजार से है, जिसमें नए ब्रांड का निर्माण किया जाता है, इसे नवीन निर्गम बाजार भी कहा जाता है। जिस बाजार में कंपनियों द्वारा प्रथम बार कोई नई चीज बेची जाती है, उसे प्राथमिक बाजार बाजार संरचना कहा जाता है।

प्राथमिक पूंजी बाजार की पांच विशेषताएं | prathmik punji bajar ki panch vhishestayen

1. प्राथमिक बाजार में नवीन प्रतिभूतियों के व्यवहार का निर्गम होता है।

2. कीमत का निर्धारण- प्रतिभूतियों की कीमत कंपनी के प्रबंधकों द्वारा निर्धारित की जाती है।

3. प्रत्यक्ष निर्माण- प्राथमिक बाजार में कंपनी सीधे बिचौलियों के माध्यम से नियोजकों को प्रतिभूतियों का निर्गम कराती है।

4. स्थान- प्राथमिक बाजार के लिए कोई विशेष स्थान नहीं होता है।

5. पूंजी निर्माण- प्राथमिक बाजार प्रत्यक्ष रूप से पूंजी निर्माण में वृद्धि करता है, और उससे नए यंत्र, मशीनरी भवन आदि के लिए उनका उपयोग करते हैं।

पूंजी बाजार के महत्व | punji bajar ke mahatv

1. पूंजी बाजार पूंजी निवेशकों और बचत करने वालों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. अपनी समस्त आय खर्च ना करने वाले बचत कर्ताओं के बाजार संरचना लिए सरल साधन पूंजी बाजार होता है।

3. आम जनता की छोटी-छोटी बचतों के लिए पूंजी बाजार एक अच्छा व लाभकारी क्षेत्र प्रदान करता है।

4. इस प्रकार कम दर पर अधिक समय के लिए पूंजी प्राप्त करने का एक अच्छा मार्ग पूंजी बाजार होता है।

5. पूंजी बाजार में मांग व पूर्ति के मध्य संतुलन बनाए रखने का कार्य पूंजी बाजार अपने उपकरणों के माध्यम से करता है।

पूंजी बाजार की विशेषता | punji bajar ki vhishestayen

1. पूंजी बाजार निगमों और सरकारी ब्रांड प्रतिभूतियों आदि में लेन-देन करता है।

2. पूंजी बाजार में कार्य करने वाले व्यक्ति, व्यापारिक बैंक, वाणिज्य बैंक, बीमा कंपनियां और औद्योगिक बैंक, औद्योगिक वित्त निगम, यूनिट ट्रस्ट, निवेश ट्रस्ट, भवन समिति आदि प्रमुख होते हैं।

3. पूंजी बाजार में नई एवं पुराने सभी प्रकार की प्रतिभूतियों का क्रय विक्रय होता बाजार संरचना है।

आदर्श बाजार शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नवीकरण के लिए आरडीए ने 25 दुकानों के अवैध कब्जे हटाये

रायपुर। रायपुर विकास प्राधिकरण की आदर्श बाजार योजना में दुकानों के कॉम्प्लेक्स की संरचना का मजबूतीकरण और नवीकरण करने के लिए बाधक बने लगबग 25 अवैध कब्जों को प्राधिकरण प्रशासन ने हटा दिया। प्राधिकरण प्रशासन के अनुसार भवन में टूट-फूट के साथ पहली मंजिल और डी ब्लॉक की संरचना का रिपरिंग करते हुए उसका मजूबतीकरण किया जाना है। इस हेतु प्राधिकरण के अध्यक्ष श्री सुभाष धुप्पड़ के निर्देश पर रायपुर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) से भवन संरचना की ड्रॉईग - डिजाईन तैयार करवाई है।
रायपुर विकास प्राधिकरण की सबसे पुरानी व्यावसायिक योजनाओं में से एक आदर्श बाजार में वहां के दुकानदारों ने अपने व्यवसाय के लिए दुकान के आगे शेड व छज्जों का निर्माण कर लिया था। प्राधिकरण ने निर्माण कार्य प्रारंभ करने के पहले 25 दुकानदारों को दो बार नोटिस दे कर अवैध कब्जों को हटाने के लिए कहा था। प्राधिकरण प्रशासन ने इसके बाद दुकानदारों को पुन: दीपावली के पहले मौखिक रुप से सूचना दे कर कब्जा हटाने के लिए कहा था। किन्तु किसी भी दुकानदार ने अपना कब्जा नहीं हटाया। इस कारण रायपुर विकास प्राधिकरण के राजस्व शाखा और तकनीकी शाखा की टीम ने आज छत्तीसगढ़ पुलिस दल और जेसीबी मशीन की सहायता से अवैध कब्जा हटा दिया। अवैध कब्जा हटाने के बाद प्राधिकरण अब वहां भवन की मजबूतीकरण और नवीकरण का कार्य प्रारंभ करेगा। आदर्श बाजार योजना में अवैध कब्जा हटाने गए दल में प्राधिकरण के अधीक्षण अभियंता श्री अनिल गुप्ता, कार्यपालन अभियंता श्री आर.के जैन, सहायक अभियंता श्री सुशील शर्मा, राजस्व अधिकारी श्री राकेश देवांगन, उप अभियंता श्री विवेक सिन्हा, श्री शाश्वत चन्द्राकर, कार्य सहायक श्री राजकुमार अवस्थी और विनोद वोरा शामिल थे।

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