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बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें

बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें

कीमत विभेद (विभेदीकरण) क्या है ? कीमत विभेद के प्रकार

कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु को एक से अधिक कीमत पर बेचा जाता है। एक एकाधिकारी कई बार किसी वस्तु की विभिन्न उपभोक्ताओं से या विभिन्न उपयोगों के लिए अलग-अलग कीमत ले सकता है। एकाधिकारी की इस कीमत नीति को कीमत विभेद (Price Discrimination) कहते हैं

कीमत विभेद क्या है?

कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक विक्रेता किसी एक वस्तु की विभिन्न विक्रेताओं से विभिन्न कीमत लेता है। यह उस समय संभव होता है जब बाजार में कोई प्रतियोगिता नहीं होती तथा विभिन्न विक्रेताओं के लिए वस्तु की माँग की लोच विभिन्न होती है।

कीमत विभेद की परिभाषा

प्रो0 स्टिगलर के अनुसार ‘‘कीमत विभेदीकरण का अर्थ हैं कि तकनीकी दृष्टि से समरूप पदार्थों को इतनी भिन्न-भिन्न कीमतों पर बेचना जो उनकी सीमान्त लागतों के अनुपात से कही अधिक हैं’’

जे.एस.बेंस. के शब्दों में, कीमत विभेद से अभिप्राय विक्रेता की उस क्रिया से है जिसमें कि वह एक ही प्रकार के पदार्थों के लिए विभिन्न विक्रेताओं से विभिन्न कीमतें लेता है।

Price discrimination refers strictly to the practice by a seller to charging different prices from different

कौतसुयानी के अनुसार, कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु विभिन्न खरीददारों को विभिन्न कीमतों पर बेची जाती है।

Price discrimination exists when the same product is sold at different prices to different buyers. Koutsoyiannis

कीमत विभेद के प्रकार

1. व्यक्तिगत कीमत विभेद : जब एक एकाधिकारी अपनी वस्तु की विभिन्न व्यक्तियों से विभिन्न कीमतें लेता है। उसे व्यक्तिगत कीमत विभेद कहते हैं। जैसे वकील द्वारा अमीर व्यक्तियों से अधिक फीस तथा गरीब व्यक्तियों से कम फीस लेना व्यक्तिगत कीमत विभेद का उदाहरण हैं।

2. भौगोलिक कीमत विभेद: जब एकाधिकारी फर्म घरेलू बाजार में वस्तु की ऊची कीमत और विदेशी बाजार में कम कीमत लेती हैं तो यह भौगोलिक कीमत लेती हैं तो यह भौगोलिक कीमत विभेद का उदाहरण हैं।

3. उपयोग कीमत विभेद: जब एकाधिकारी फर्म एक वस्तु के विभिन्न उपयोगों के लिये विभिन्न कीमतें लेती हैं। जैसे घरेलू उपयोग के लिए बिजली की प्रति इकाई कीमत तथा कृषि व उद्योगों में उपयोग के लिये बिजली की प्रति इकाई कम कीमत ली जाती है। यह उपयोग कीमत विभेद है।

4. समयानुसार कीमत विभेद : जब एकाधिकारी फर्म एक जैसी सेवा के लिये अलग-अलग समय पर अलग-अलग कीमत लेती है। जैसे ट्रनकॉल के रेट (कीमत) दिन में ऊँचे तथा शत में नीचे होते हैं।

कीमत विभेद की श्रेणी

पीगू ने अपनी पुस्तक ‘Economics of Welfare’ में कीमत विभेदीकरण (Price Discrimination) को तीन श्रेणियों में बांटा हैः

1. प्रथम श्रेणी कीमत विभेद : इसमे एकाधिकारी विभिन्न क्रेताओं की कीमत वसूल करता है और इस प्रकार एकाधिकारी प्रत्येक उपभोक्ता से सम्पूर्ण बचत खींच लेता हैं।

2. द्वितीय श्रेणी बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें कीमत विभेद : इसमें एकाधिकारी इस प्रकार से विभिन्न क्रेताओं से कीमत वसूल करता है कि वह उनकी सम्पूर्ण उपभोक्ता की बचत तो नहीं किन्तु उसका एक हिस्सा प्राप्त कर लेता है। भारतीय रेलवे इसी सिद्धांत पर विभिन्न श्रेणीयों के याित्रायो से विभिन्न किराया वसूल करता है।

3. तृतीय श्रेणी कीमत विभेद : इसके एकाधिकारी माँग की लोच के आधार पर अपने क्रेताओं को दो या दो से अधिक समूहों में बाँट देता है। जिस बाजार में माँग कम लोचदार होती है। वहाँ अधिक कीमत तथा जिस बाजार में मांग अधिक लोचदार होती है। वहाँ कम कीमत वसूल की जाती है।

कीमत विभेद की आवश्यक शर्तें

1. एकाधिकारी शक्ति का अस्तित्व -कीमत विभेद की पहली शर्त यह है कि विक्रेता एकाधिकारी होना चाहिए अर्थात् उसके पास एकाधिकारी शक्ति होनी चाहिए। एकाधिकारी शक्ति के अभाव में विक्रेता कुछ क्रेताओं से दूसरों की तुलना में अधिक कीमत नहीं ले सकता। पूर्ण प्रतियोगी फर्में एक समरूप उत्पाद के लिए विभिन्न कीमतें नहीं ले पाएँगी क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा के अनुसार बाजार में एक ही कीमत प्रचलित होने की प्रवृत्ति होती है।

2. पृथक बाजार-कीमत विभेद के लिए यह आवश्यक है कि वस्तु के दो या तीन बाजार होने चाहिए जिन्हें एक दूसरे से पृथक किया जा सकता है तथा एकाधिकारी उन्हें पृथक रख सकता है। बाजारों को भौगोलिक दृष्टि से, या ब्रांड के द्वारा, बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें या समय के द्वारा पृथक रखा जा सकता है। व्यक्तिगत सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग जैसे डाॅक्टर, वकील, आदि भी एक समान सेवा के लिए विभिन्न कीमतें ले सकते हैं।

3. माँग की लोच में अंतर-कीमत विभेद उस समय संभव होगा जब विभिन्न बाजारों में बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें पाई जाने वाली माँग की लोच विभिन्न होगी। यदि ऐसा होता है तो एकाधिकारी बेलोचदार माँग वाले बाजार में अधिक कीमत निर्धारित करेगा और अधिक लोचदार माँग वाले बाजार में कम कीमत निर्धारित करेगा। ऐसा करने से ही वह अपनी कुल आय को बढ़ा सकता है क्योंकि माँग में परिवर्तन का कोई डर नहीं होगा। यदि भिन्न-भिन्न बाजारों में माँग की लोच एक जैसी हो तो कीमत विभेद करना संभव नहीं हो सकेगा।

4. पुन:बक्री संभावना का अभाव-कीमत विभेद के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि उस वस्तु या सेवा का प्रारंभिक क्रेता उसकी पुन:बक्री नहीं कर सके। ऐसा तभी हो सकता है जब एक ओर तो, वस्तु की एक इकाई सस्ते बाजार से महंगे बाजार में हस्तांतरित न हो तथा दूसरी ओर क्रेता महंगे बाजार से सस्ते बाजार में नहीं जा सके, अर्थात् वस्तु की इकाइयों को सस्ते बाजार से महंगे बाजार में हस्तांतरित नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो वस्तु कम कीमत के बाजार में खरीदी जाएगी और ऊँची कीमत के बाजार में पुनः बेच दी जाएगी, इससे कीमत का वह अंतर समाप्त हो जाएगा जिसे एकाधिकारी बनाए रखना चाहता है। इसलिए कीमत विभेद के लिए यह आवश्यक है कि कम कीमत वाले बाजार से अधिक कीमत वाले बाजार में वस्तु का हस्तांतरण नहीं होना चाहिए।

लिप्सी के अनुसार, कीमत विभेद करने की योग्यता की मुख्य शर्त यह है कि कम कीमत पर वस्तु प्राप्त करने वाला क्रेता उसकी पुन:बक्री उस क्रेता को नहीं कर सकता जिसे वह वस्तु ऊंची कीमत पर प्राप्त होती है।

क्या कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक होता है या लाभदायक

कुछ अवस्थाओं में कीमत विभेद समाज के लिये लाभदायक और कुछ अवस्थाओं में कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक हैं।

बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें

प्रश्न 47 : पूर्ण प्रतियोगिता क्या है? पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में वस्तु का मूल्य किस प्रकार से निर्धारित होता है?

उत्तर: पूर्ण प्रतियोगिता का आशय

अर्थ एवं परिभाषा- पूर्ण प्रतियोगिता वह बाजार है, जिसमें क्रेता व विक्रेता के बीच वस्तुओं का क्रय-विक्रय प्रतियोगिता के आधार पर होता है । इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से कोई भी फर्म या व्यक्ति वस्तु के मूल्य को बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें प्रभावित नहीं कर सकता है। पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुओं का मूल्य प्रत्येक स्थान पर एक समान रहता है।

(1) क्रेता एवं विक्रेताओं की अधिक संख्या का होना, (2) वस्तुएं रूप-रंग, गुण एवं वचन में एक समान होना, (3) बाजार का पूर्ण ज्ञान, (4) फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश तथा बहिगर्मन, (5) उत्पादन के साधनों की पूर्ण गतिशीलता, (6) मूल्य नियन्त्रण की अनुपस्थिति, (7) औसत तथा सीमान्त भाव का बराबर होना, (8) दीर्घकालीन स्थिति में एक मूल्य।

पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में मूल्य निर्धारण

पूर्ण-प्रतियोगिता में एक फर्म का साम्य- फर्म के साम्य का अर्थ है, उत्पादन की मांत्रा में कोई परिवर्तन न होना, प्रत्येक फर्म अपने लाभ को अधिकतम करना चाहती है, जब तक उसको अधिकतम लाभ प्राप्त नहीं होता, वह उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करती रहती है, जहाँ उसको अधिकतम लाभ प्राप्त होता है, उसी बिन्दु पर वह अपने उत्पादन की मात्रा को निश्चित कर देती है, अर्थात् यह फर्म साम्य की दशा कहलाती है। पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण को दो भागों में बाँटा जा सकता है

(I) अल्पकाल में मूल्य निर्धारण

पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में प्रत्येक फर्म अपना लाभ अधिकतम करने का प्रयास अवश्य करती है, किन्तु अल्पकाल में इतना कम समय होता है कि फर्म को वस्तुओं की माँग के अनुसार उसकी पूर्ति करने के लिए साधनों की मात्रा में वृद्धि कर उत्पादन बढ़ाने का समय नहीं मिलता। अतः फर्म को उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य पर अल्पकाल में सामान्य लाभ, अधिकतम लाभ अथवा हानि भी हो सकती है। फर्म साम्य की दशा में तब होती है जबकि सीमान्त लागत और सीमान्त आगम दोनों बराबर होते हैं अर्थात MR = MC

(1) अधिकतम लाभ- जब बाजार में माँग, पूर्ति की तुलना में अधिक होती है, तो फर्म को अधिक लाभ प्राप्त होता है। उपरोक्त चित्र में E बिन्दु साम्य का बिन्दु है अतः इस बिन्दु पर फर्म को अधिकतम लाभ प्राप्त बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें होता है । इस बिन्दु पर उत्पादन की मात्रा OQ, कीमत OP तथा लागत OM के बराबर है। इस प्रकार कुल लाभ की मात्रा MPER है।

यहाँ पर जब बाजार में वस्तु की कीमत OP है तो उत्पादन की मात्रा OQ के E बिन्दु पर हैं । इस बिन्दु पर MR = MC है । इस मूल्य पर AC (औसत लागत) AR से (औसत आय) कम है। अतः फर्म को प्रति इकाई ER लाभ प्राप्त होता हैं ।

(2) सामान्य लाभ- जब बाजार में माँग और पूर्ति दोनों आपस में बराबर होते हैं तो फर्म को सामान्य लाभ प्राप्त होता हैं ।


उपरोक्त चित्र में OP कीमत पर MC और MR दोनों E बिन्दु पर मिलते हैं, यहाँ उत्पादन मात्रा OQ है, इस उत्पादन पर फर्म की कीमत OP = AR = MR = MC= AC अतः फर्म को केवल सामान्य लाभ प्राप्त हो रहा है ।

(3) हानि की दशा- जब बाजार में वस्तु की माँग, पूर्ति की तुलना में कम होती है, तो फर्म को हानि होती है ।

उपर्युक्त चित्र में औसत आय (AC) औसत् लागत (AC) की तुलना में कम है। अत: फर्म को हानि होगी । यहाँ पर फर्म को MPRE के बराबर कुल हानि होती है।

AR = AC = सामान्य लाभ

(II) दीर्घकाल में मूल्य निर्धारण

दीर्घकालीन अवस्था इतनी अधिक समय अवधि है, जिसमें माँग के अनुरूप पूर्ति को समायोजित किया जा सकता है । फर्मों के स्वतंत्र प्रवेश एवं बर्हिगमन के कारण नई फर्मं आ सकती हैं। फर्म या उद्योग इस स्थिति में केवल सामान्य लाभ की दशा में कार्यरत रहता है । यदि अल्पकाल में फर्म या उद्योग को अधिकतम लाभ हो रहा है तो ऐसी दशा में नई फर्ने उद्योग में आने लगेंगी जिससे पूर्ति बढ़ जायेगी और मूल्य कम हो जाने से लाभ भी कम हो जायेगा, यदि अल्पकाल में फर्म हानि पर भी कार्य कर रही है, तो वह दीर्घकाल तक हानि की दशा में नहीं रहेगी, अर्थात दीर्घकाल की प्रवृत्ति सामान्य लाभ की होती है ।

दीर्घकाल में पर्याप्त समय होता है अतः वस्तु की माँग और पूर्ति दोनों आपस में बराबर होती हैं। अत: फर्म को यहाँ पर केवल सामान्य लाभ प्राप्त होता है। इससे प्रस्तुत रेखाचित्र के द्वारा दिखाया जा सकता है।

पीछे अंकित चित्र में माँग रेखा DD एवं पूर्ति रेखा SS दोनों एक दूसरे को जिस बिन्दु पर काट रही हैं वहाँ पर वस्तु का 5 रु. निर्धारित हो रहा है । यदि माँग बढ़ती है तो कीमत भी बढ़ जायेगी।

बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें

प्रश्न 49 : पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग के साम्य या मूल्य निर्धारण का वर्णन कीजिये।

उत्तर - पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग को साम्य

किसी एक वस्तु का उत्पादन करने वाले सभी फर्मों के समूह को उद्योग कहते हैं। पूर्ण प्रतियोगिता में बहुत-सी प्रतियोगी फर्मों का समूह उद्योग कहलाता है। उद्योग का अर्थ जान लेने के बाद हमें उद्योग के साम्य का अर्थ समझना होगा। प्रो. बोल्डिग के अनुसार, “एक उद्योग साम्य की स्थिति में उस समय कहलाता है जबकि उसके विस्तार एवं संकुचन की कोई प्रवृत्ति नहीं होती है ।” इसे हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि जब किसी उद्योग का उत्पादन न तो बढ़ रहा हो और न ही घट रहा हो बल्कि स्थिर हो तब वह उद्योग साम्य की स्थिति में होता है। उद्योग का कुल उत्पादन उस समय स्थिर रहता है जब उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तु की कुल पूर्ति उसकी कुल मॉग के बराबर हो।

1. अल्पकाल में उद्योग का साम्य

एक उद्योग अल्पकाल में साम्य की स्थिति में उस समय होता है जब अल्पकाल में उसका उत्पादन स्थिर हो जाता है तथा उसमें परिवर्तन की कोई शक्ति क्रियाशील नहीं रह जाती है। चूंकि उद्योग का उत्पादन सभी फर्मों के उत्पादन का योग होता है, अत: यह स्थिर तब होता है जब अल्पकाल में फर्मों का उत्पादन स्थिर हो जाये । अल्पकाल में भी फर्मों का उत्पादन तब स्थिर होता है जब वे सभी फर्मे अल्पकालीन साम्य की स्थिति में हों और ऐसा तब होता है जब फर्मों की सीमाँत लागत उनकी अपनी सीमॉत आगम के बराबर हो । सारांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि अल्पकाल में उद्योग में लगी सभी फर्मे साम्य की स्थिति में होती हैं तब उद्योग भी अल्पकालीन साम्य की स्थिति में होता है। प्रो. वाटसन के शब्दों में, “एक उद्योग अल्पकाल में उस समय साम्य की स्थिति में होता है जबकि उद्योग का उत्पादन स्थिर हो जाता है, उत्पादन के विस्तार अथवा संकुचन के लिए कोई शक्ति क्रियाशील नहीं रहती है। यदि सभी फर्मं साम्य में हों तो उद्योग भी साम्य में होता है ।”

अल्पकाल में एक फर्म साम्य की स्थिति में अधिसामान्य लाभ, सामान्य लाभ अथवा हानि उठाती हुई हो सकती है, अतः अल्पकालीन उद्योग के साम्य की स्थिति में अधिसामान्य लाभ अथवा हानि का सह-अस्तित्व हो सकता है। उद्योग की सभी फर्मों को अल्पकाल में केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता हो तो यह उद्योग के पूर्ण संतुलन की स्थिति होती है जो केवल संयोग ही होता है । उद्योग के अल्पकालीन साम्य की स्थिति में उद्योग की अल्पकालीन कुल माँग एवं कुल पूर्ति बराबर होती है। अत: यहाँ उद्योग की कुल माँग एवं पूर्ति का अध्ययन किया जा सकता है।

अल्पकाल में उद्योग का माँग वक्र- उद्योग का अल्पकालीन माँग वक्र बाजार में उस वस्तु के उपभोक्ताओं के व्यक्तिगत माँग वक्रों का क्षैतिज योग होता है । यह वक्र यह बताता है। कि विभिन्न मूल्यों पर उपभोक्ता कितनी-कितनी मात्राएं खरीदने को तैयार हैं। यह वक्र बायें से दायें को नीचे की ओर गिरता हुआ होता है, जो यह बताता है कि वस्तु का जैसे-जैसे मूल्य गिरता है, वैसे-वैसे वस्तु की माँग बढ़ती है ।

अल्पकाल में उद्योग का पूर्ति वक्र- उद्योग में लगी सभी फर्मों के व्यक्तिगत पूर्ति वक्रों का क्षैतिज योग उद्योग का पूर्ति वक्र होता है । यह वक्र प्रदर्शित करता है कि विभिन्न मूल्यों पर सभी फर्मे वस्तु की कितनी-कितनी मात्राएं बेचने को तैयार हैं। अल्पकाल में सभी फर्मों का पूर्ति वक्र उनकी सीमाँत लागत की प्रकृति के अनुसार बायें से दायें को ऊपर उठता हुआ होता है जो यह बताता है कि जैसे-जैसे मूल्य बढ़ता है, वैसे-वैसे उद्योग द्वारा वस्तु की पूर्ति में वृद्धि होती है, परंतु अल्पकाल में समयाभाव के कारण यह वृद्धि केवल परिवर्तनशील साधनों की मात्रा में परिवर्तन करके ही की जा सकती है ।

उद्योग को अल्पकालीन साम्य- उद्योग की माँग एवं पूर्ति वक्रों का अध्ययन करने के बाद अब हम उद्योग के साम्य की रेखाचित्र की सहायता से व्याख्या कर सकते हैं। रेखाचित्र में DD उद्योग का माँग वक्र है तथा SS उद्योग का पूर्ति वक्र है । DD वक्र ने SS वक्र को E बिन्दु पर काटा है, अत: E साम्य बिन्दु है । उद्योग के साम्य में होने के लिए यह आवश्यक है। कि उद्योग में लगी सभी फर्मं भी साम्य की स्थिति में हों। फर्मे अल्पकालीन साम्य की स्थिति में अधिसामान्य लाभ, सामान्य लाभ अथवा हानि उठाती हुई हो सकती हैं। चित्र में एक प्रतिनिधि फर्म की साम्य की स्थिति दिखाई गई है।

चित्र में फर्म E1 बिन्दु पर साम्य की स्थिति में है क्योंकि इसी बिन्दु पर फर्म का सीमाँत आगम एवं सीमाँत लागत दोनों बराबर हैं। इस साम्य स्थिति में फर्म वस्तु की OM1 मात्रा का उत्पादन करेगी। इस बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें साम्य बिन्दु पर यदि फर्म की औसत लागत वक्र SAC1 है तो फर्म को E1C के बराबर प्रति इकाई हानि होगी । यदि फर्म के साम्य की स्थिति में उसका औसत लागत वक्र SAC2 है तो फर्म को न लाभ होगा और न हानि । फर्म के औसत लागत वक्र की स्थिति SAC3 है तो फर्म को BE1 के बराबर प्रति इकाई अधिसामान्य लाभ होगा।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि अल्पकाल में उद्योग उस समय साम्य की स्थिति में होता है जब उद्योग की अल्पकालीन कुल माँग तथा कुल पूर्ति दोनों बराबर हों । इस साम्य की स्थिति में उद्योग में लगी प्रत्येक फर्म का भी साम्य की स्थिति में होना आवश्यक है। एक उद्योग के अल्पकालीन साम्य के साथ अधिसामान्य लाभ अथवा हानि का सह-अस्तित्व हो सकता है।

II. दीर्घकाल में उद्योग का साम्य

एक उद्योग दीर्घकाल में उस समय साम्य की स्थिति में होता है जब उद्योग की दीर्घकालीन माँग एवं दीर्घकालीन पूर्ति दोनों समान हों । इस साम्य की स्थिति में उद्योग में उत्पादन स्थिर हो जाता है तथा उसमें परिवर्तन की प्रवृत्ति नहीं होती है। ऐसा तब हो सकता है। जब निम्न शर्ते पूरी हों-

(1) उद्योग में लगी हुई प्रत्येक फर्म साम्य की स्थिति में हो । ऐसा तब होता है जब फर्म की सीमांत आगम एवं सीमांत लागत दोनों एक-दूसरे के बराबर हों और इस साम्य की स्थिति में सीमाँत लागत वक्र सीमाँत आगम वक्र को नीचे से क़ाटनी चाहिए।

(2) फर्मों की संख्या में परिवर्तन की प्रवृत्ति न हो। ऐसा तब होता है जब उद्योग में प्रत्येक फर्म केवल सामान्य लाभ ही कमा रही हो, क्योंकि यदि किसी फर्म को अधिसामान्य लाभ होगा तो नई फमें प्रवेश करेंगी और इसके विपरीत किसी फर्म को हानि होगी तो कुछ फर्मों में उद्योग को छोड़ने की प्रवृत्ति होगी। अतः साम्य बिन्दु पर प्रत्येक फर्म की दीर्घकालीन सीमांत लागत फर्म की दीर्घकालीन सीमॉत आगम के बराबर हो तथा यह औसत लागत के भी बराबर हो अर्थात् LMC = LMR = LAR = LAC की स्थिति होनी चाहिए।
दीर्घकाल में उद्योग की साम्य की स्थिति को रेखाचित्र में दिखाया गया है। रेखाचित्र में उद्योग की दीर्घकालीन कुल माँग DD वक्र तथा कुल पूर्ति SS वक्र द्वारा दिखाई गई है। SS तथा DD का कटाव बिन्दु E पर उद्योग साम्य की स्थिति में है। इस साम्य की स्थिति में OP मूल्य निर्धारित होता है जो फर्म के लिए दिया हुआ होता है। फर्म इस मूल्य के अनुसार उत्पादन को समायोजन करेगी। फर्म का साम्य बिन्दु E1 पर होगा जहां फर्म की LMC तथा MR दोनों एक-दूसरे के बराबर हैं । इस साम्य बिन्दु पर केवल LMC तथा MR ही बराबर नहीं हैं बल्कि फर्म का LAC भी LMC तथा MR के बराबर है। अतः फर्म OM1 मात्रा का उत्पादन करेगी तथा सामान्य लाभ कमायेगी ।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म का दीर्घकालीन साम्य

दीर्घकालीन समय की वह अवधि होती है, जिसमें उत्पादक के पास इतना समय होता है कि वह माँग के अनुसार पूर्ति का समायोजन कर सके अर्थात माँग बढ़ने पर वह वस्तु की पूर्ति बढ़ा सकता है तथा माँग कम होने पर वह वस्तु की पूर्ति घटा सकता है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में साम्य की स्थिति में प्रत्येक फर्म को केवल सामान्य लाभ की ही प्राप्ति होती हैं, इसका कारण यह है कि यदि किसी फर्म को हानि होती है, तो दीर्घकाल में वह उत्पादन बन्द कर देगी, जिससे वस्तु की पूर्ति घटने पर उसका मूल्य बढ़ेगा तथा हानि उठाने वाली अन्य फर्मों की हानि समाप्त हो जायेगी। इसके विपरीत, दीर्घकाल में यदि किसी फर्म को अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है, तो अन्य फर्मे उससे आकर्षित होकर वैसी ही वस्तु का उत्पादन करने लगेंगी, जिससे वस्तु की पूर्ति बढ़ेगी और मूल्य घटेगा। परिणामस्वरूप अतिरिक्त लाभ अदृश्य हो जायेगा। दीर्घकाल में सामान्य लाभ प्राप्ति का रेखाचित्र अल्पकाल के सामान्य लाभ के रेखाचित्र के समान ही होगा।

बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें

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श्रम बाजार: परिभाषा, प्रकृति , प्रकार, मांग और पूर्ती

श्रम बाजार जिसे नौकरी बाजार के नाम से भी जाना जाता है, श्रम की मांग एवं पूर्ति की और संकेत करता है। यहाँ कर्मचारी या श्रमिक आपूर्ति प्रदान करते हैं एवं नियोक्ता(काम देने वाला) श्रम की मांग करता है। श्रम अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है क्योंकि हर आर्थिक गतिविधि में श्रम का एक अहम योगदान होता है।

श्रम बाजार की परिभाषा : (definition of labour market)

श्रम बाजार एक ऐसी जगह है जहां श्रम की मांग एवं पूर्ति द्वारा श्रम की मात्र एवं श्रम के मूल्य(वेतन) का निर्धारण किया जाता है।

अतः इस बाजार में श्रमिक नियोक्ता द्वारा दिया गया काम करके अपना योगदान देते हैं एवं इसके बदले उन्हें वेतन के रूप में प्रतिफल दिया जाता है। बता दें की श्रमिक की काम करने की रूचि को बरकरार रखने के लिए उन्हें नियमित तौर पर वेतन देने की आवश्यकता होती है।

श्रम बाजार की विशेषता : (characteristics of labour market)

श्रम बाजार की मुख्य विशेषताएं निम्न है :

  1. कठोर एवं अनम्य
  2. विनियामितता
  3. अपूर्ण प्रतियोगिता

1. तीन स्तरीय बाजार : (three level market)

बड़े अर्थशास्त्रियों के अनुसार श्रम बाजार खंडित होता है। इसके तीन मुख्य भाग होते हैं। इन तीन में विभिन्न श्रमिक वर्गीकृत होते हैं। सबसे पहले स्तर में वे श्रमिक आते हैं जिनके पास उच्च स्तरीय कौशल होता है। इन श्रमिकों का वेतन सबसे अधिक होता है एवं ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते हैं।

दूसरा स्तर होता है उन श्रमिकों का जिनके पास उच्च स्तरीय शिक्षा एवं कौशल नहीं होता है। ये पहले स्तर के श्रमिकों के नीचे काम करते हैं एवं उनसे कम वेतन पाते हैं।

तीसरे स्तर के श्रमिक वे होते हैं जोकि मुख्यतः शारीरिक काम करते हैं एवं इनके पास किसी प्रकार की शिक्षा नहीं होती है। इस वर्ग में मुख्यतः ऐसे श्रमिक होते हैं जोकि दैनिक वेतन पर काम करते हैं।

2. कठोर एवं अनम्य :

श्रम बाजार के कठोर एवं अनम्य होने से अभिप्राय है की अलग अलग स्थानों पर समान काम के लिए अलग वेतन होता है। ऐसा मुख्यतः भौगोलिक अलगाव के कारण होता हैं। हम जानते हैं श्रम का मूल्य एवम मात्रा बाजार में श्रम की मांग एवं आपूर्ति से निर्णय किया जाता है। हर जगह श्रम की अलग मांग एमव आपूर्ति होती है जिसके कारण लोगों का अलग वेतन होता है।

3. विनियामितता : (regulatory)

एक श्रम बाजार का विनियमित होने से अभिप्राय है की विभिन श्रमिकों के विभिन्न संगठन होते हैं जो यह निर्णय करते हैं की श्रमिकों को काम के लिए कितना न्यूनतम वेतन मिलना चाहिए। यदि ये शर्त नहीं मानी जाती हैं तो ये संगठन अपने हिसाब से इसके खिलाफ कार्यवाही करते हैं एवं श्रमिकों के हक के लिए लड़ते हैं।

4. अपूर्ण प्रतियोगिता : (imperfect competition)

श्रम बाजार के अपूर्ण प्रतियोगीई होने से अभिप्राय है की श्रम की कीमत यानी वेतन हर बार मांग एवं आपूर्ति से ही निर्धारित नहीं होता है यह कई बार राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संस्थान जैसे मजदूर संगठनों से भी प्रभावित होकर निर्धारित होता है। जब कंपनियां नियमों का पालन नहीं करती हैं तो ये संगठन कार्यवहन में हस्तक्षेप करते हैं एवं वेतन का निर्धारण करते हैं। अतः श्रम बाज़ार को पूर्ण प्रतियोगी बाज़ार नहीं कहा जा सकता है।

श्रम बाज़ार के प्रकार: (types of labour market)

श्रम बाज़ार मुख्यतः तीन प्रकार का होता है :

ये बाज़ार के मुख्य स्तर होते हैं जिनके आधार पर बाज़ार को वर्गीकृत किया जाता है।

1. प्राथमिक श्रम बाज़ार : (primary labor market)

यह बाज़ार का पहला वर्ग होता है। इस वर्ग में ऐसे श्रमिक आते हैं जिनके पास अत्यधिक उन्नत कौशल होता है एवं इन्हें उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त होती है। इनका काम मुख्यतः कंपनियों के विभिन्न निर्णय लेना होता हैं एवं ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े ओहदे पर काम करते हैं। इनका वेतन सबसे अधिक होता है एवं समय समय बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें बाजार में प्रवृत्ति का निर्धारण कैसे करें पर इन्हें पदोंन्नती भी मिलती है।

2. द्वितीयक श्रम बाज़ार : (secondary labor market)

द्वितीयक श्रम बाज़ार वह बाज़ार होता है जहां ऐसे स्श्रमिक होते हैं जिनके पास ज्यादा उच्च स्तरीय शिक्षा नहीं होती है। इनके पास प्राथमिक श्रमिक जितना उन्नत कौशल भी नहीं होता है एवं इनका उनसे कम वेतन होता हैं।

3. तृतीयक श्रम बाज़ार: (tertiary labor market)

तृतीयक श्रम बाज़ार में ऐसे श्रमिक आते हैं जिनके पास सबसे कम शिक्षा होती है या ना के बराबर शिक्षा होती है। इनका वेतन सबसे कम होता है क्योंकि ये किसी भी काम में कुशल नहीं होते हैं एवं ऐसे लोग मुख्यतः दैनिक वेतन पर काम करते हैं जोकि बहुत कम होता है।

श्रम बाजार की मांग और आपूर्ति : (demand and supply in labor market)

जैसा की हम ऊपर पढ़ चुके हैं की श्रम बाजार में वेतन एवं श्रम की मात्र का निर्धारण मांग और आपूर्ति की वजह से होता है। हम यहाँ जानेंगे की मांग और आपूर्ति श्रम बाजार को किस तरह प्रभावित करते हैं।

श्रम बाजार की मांग से अभिप्राय है कंपनियों द्वारा किसी कोई काम को करवाने के लिए जब श्रमिक की ज़रुरत होती है तो यां उनके द्वारा ममांग होती है। वे विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न वेतन देते हैं।

श्रम बाजार की आपूर्ति से अभिप्राय है वे सभी लोग जोकि वर्तमान समय में एवं वेतन दर पर काम करने के लिए तैयार हैं एवं अपने कौशल का प्रयोग करके नियोक्ता के प्रति अपना योगदान देना चाहते हैं।

श्रम बाज़ार में मांग और आपूर्ति

ऊपर चित्र में जैसा की आप देख सकते हैं मांग एवं पूर्ती की शक्तियां किस प्रकार श्रम बाज़ार में वेतन एवं मात्र को प्रभावित करती हैं। यदि श्रम की मांग अधिक बढ़ जाती है एवं पूर्ती कम होती है तो इससे वेतन में बढ़ोतरी हो जाती है लेकिन यदि पूर्ती की मात्र अधिक होती है एवं ज़रुरत या मांग कम होती है तो इससे वेतन घट जाता है।

आप अपने सवाल एवं सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में व्यक्त कर सकते हैं।

By विकास सिंह

विकास नें वाणिज्य में स्नातक किया है और उन्हें भाषा और खेल-कूद में काफी शौक है. दा इंडियन वायर के लिए विकास हिंदी व्याकरण एवं अन्य भाषाओं के बारे में लिख रहे हैं.

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