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अभौतिक खाता

अभौतिक खाता

सांस्कृतिक विलम्बना क्या होती है?

इसे सुनेंरोकेंसांस्कृतिक विलम्बना से इस प्रकार तात्पर्य है संस्कृति के किसी श का दूसरे से पीछे रह जाना। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Non- अभौतिक खाता material) माने हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि अभौतिक अंश भौतिक से पिछड़ जाता है। इसे ही सांस्कृतिक विलम्बना या ‘पश्चायन’ कहते हैं।

भारतीय संस्कृति से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

इसे सुनेंरोकेंभारतीय संस्कृति से संवेदनाओं की सीख मिलती है। हम सदैव भारतीय संस्कृति की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। लेकिन वास्तविकता में लोग हमें भारतीय संस्कृति के तहत ही जानते हैं। इसलिए हमें भाषा का विरोध नहीं करना चाहिए।

संस्कृति कारन से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसंस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। यह ‘कृ’ (करना) धातु से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ की मूल स्थिति,यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है।

संस्कृति के प्रमुख प्रकार क्या है?

इसे सुनेंरोकेंसंस्कृति दो प्रकार की हो सकती है : (1) भौतिक संस्कृति, तथा (2) अभौतिकसंस्कृति।

इसे सुनेंरोकेंसांस्कृतिक विलम्बना से इस प्रकार तात्पर्य है संस्कृति के किसी श का दूसरे से पीछे रह जाना। संस्कृति के भौतिक अथवा अभौतिक तत्वों में से यदि कोई भी परस्पर पीछे रह जाये तो ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ आ जाती है। वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि अनौतिक संस्कृति की अपेक्षा भौतिक संस्कृति का प्रसार तीव्रता से हो रहा है।

साले संस्कृति से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसवाल: शालेय संस्कृति से क्या समझते हैं? शालेय यह एक ऐसी इकाई है जो आपको विद्यालय की संस्कृत को प्रभावित करने वाले कारणों और आयामों से परिचय कराती हैं। विद्यालय की संस्कृति अभी मान्य, सामूहिक मूल्य, अनुमानों और मान्यताओं से होती हैं।

शालेय शिक्षा क्या है?

इसे सुनेंरोकेंसामाजिक परिवर्तन लाने हेतु : भावी नागरिकों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक व सर्वांगीण विकास के लिए विद्यालयों का कार्य ज्ञान एवं संस्कृति के संरक्षण तथा हस्तांतरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न क्षेत्रों के लिए सृजनशील नेतृत्व को विकसित करना तथा समानता.

विरासत शब्द से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंआसान शब्दों में यदि कहा जाए तो देश के अंदर हमारे चारों ओर मौजूद वैसी सभी वस्तुएं जो हमें हमारे पूर्वजों से प्राप्त हुआ है विरासत कहलाती है. विरासत, देश और लोगों की पहचान को परिलाक्षित करती है. किसी भी व्यक्ति के लिए विरासत उसकी पहचान होती है.

संस्कृति के कितने आयाम होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसारांश में संस्कृति के दो सै(ांतिक आयाम हंै – भौतिक तथा अभौतिक। जहाँ संज्ञानात्मक तथा मानकीय पक्ष अभौतिक हैं, वहीं भौतिक आयाम उत्पादन बढ़ाने तथा जीवन स्तर को उफपर उठाने के लिए महत्त्वपूणर् हैं।

पितृपक्ष विशेष : क्या मृत्यु के बाद सभी बनते हैं प्रेत, कैसा होता है आत्मा सफर?

शरीर से निकलने के बाद आत्मा की स्थिति

मृत्यु तो एक दिन सभी की आनी है। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि मृत्यु के बाद आत्मा जब शरीर से निकल जाती है तो कुछ समय तक अचेत स्थिति में रहती है। चेतना आने पर आत्मा अपने शरीर को देखकर मोहवश अपने परिवार और अपने शरीर को देखकर दुःखी होती रहती है और परिजनों से बात करना चाहती, फिर से अपने शरीर में लौटने की कोशिश करती है लेकिन शरीर में फिर से प्रवेश नहीं कर पाती है। इसके बाद यम के दूत आत्मा को अपने साथ तीव्र गति से लेकर यम के दरबार में पहुंचा देते हैं। यहां चित्रगुप्त और यम के सभासद व्यक्ति के कर्मों का लेखा-जोखा करके वापस परिजनों के पास पहुंचा देते हैं।

फिर लौटकर आती है आत्मा

फिर लौटकर आती है आत्मा

यहां मृत व्यक्ति की आत्मा मृत्यु के 12 दिनों तक प्रेतावस्था में परिवार वालों के बीच में रहती है और परिजनों द्वारा दिए गए पिंडदान को खाते हैं और दिए गए जल को पीते हैं जिससे अंगूठे के आकार का इनका अभौतिक शरीर तैयार होता है जिन्हें व्यक्ति के द्वारा जीवित अवस्था में किए गए कर्मों का फल भोगना होता है। इसी अभौतिक शरीर को यम के दूत 12वें दिन यमपास में बांधकर यममार्ग पर ले जाते हैं। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि यममार्ग का सफर बहुत ही कठिन होता है। इस मार्ग पर व्यक्ति को उनके कर्मों के अनुसार कष्ट प्राप्त होता है। 12 महीने में 16 नगरों और कई नरकों को पार करके आत्मा यमलोक पहुंचती है।

आत्मा के लिए वो 12 दिन

आत्मा के लिए वो 12 दिन

गरुड़ पुराण में बताया गया है कि मृत्यु के बाद हर व्यक्ति को 12 दिनों के लिए प्रेत योनी में जाना होता है। यह 12 दिन मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति की आत्मा को अभौतिक शरीर दिलाने के लिए होता है। यही अभौतिक शरीर पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग और पाप के प्रभाव से नरकगामी होता है। कर्म भोगने वाले इस शरीर द्वारा कर्म के फल को भोग लिए जाने के बाद फिर से जीवात्मा को नया शरीर प्राप्त होता है। स्वर्ग गए लोग अपने पुण्य के प्रभाव से धनवान और सुखी परिवार में जन्म लेते हैं या अपने कर्मों से धनवान होते हैं।

मृत्यु के बाद आत्मा का सफर

मृत्यु के बाद आत्मा का सफर

गरुड़ पुराण जिसमें मृत्यु के बाद की स्थिति का वर्णन किया गया है, उसमें बताया गया है, जो लोग पुण्यात्मा होते हैं केवल वही भगवान विष्णु के दूतों द्वारा विष्णु लोक को जाते हैं। इन्हें प्रेत योनी में नहीं जाना होता है बाकी सभी लोगों को मृत्यु के बाद प्रेत योनी से गुजरना ही होता है। मृत्यु के बाद जब आत्मा को यमलोक लाया जाता है तो यम के दूत एक दिन में उस अभौतिक शरीर को एक दिन में 1600 किलोमीटर चलाते हैं। महीने में एक दिन मृत्यु तिथि के दिन आत्मा को ठहरने का मौका दिया जाता है।

इसलिए मृत्यु के बाद श्राद्ध तर्पण जरूरी

इसलिए मृत्यु के बाद श्राद्ध तर्पण जरूरी

गरुड़ पुराण में बताया गया है कि मृत्यु तिथि पर व्यक्ति की मृत्यु के बाद पूरे एक साल तक अन्न जल का दान और तर्पण करना चाहिए। इन दिन किए गए अन्न दान और ब्राह्मण भोजन से यमदूतों और मृत व्यक्ति की आत्मा को बल मिलता है, जिससे वह आगे का सफर तय कर पाते हैं। जिन परिवारों में लोग ऐसा नहीं करते हैं उनके परिजन यममार्ग में कष्ट भोगते हैं और अपने परिवार के लोगों को शाप देते हैं, जिनसे पितृदोष लग जाता है और जीवन में कई तरह की परेशानियां आने लगती हैं।

अभौतिक खाता

दोस्तो,चीन के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर युननान प्रांत स्थित है।इस में हान लोगों के अलावा 25 अल्पसंख्य जातियों के लोग भी बसे हुए हैं।इस लिहास से वह विश्व में जातीय संस्कृतियों से संपन्न एक प्रमुख विशेष क्षेत्र माना गया है।लम्बे अरसे से इस प्रांत का प्रशासन इन संस्कृतियों के संरक्षण व विकास को भारी महत्व देता रहा है और संबंधित काम में उपलब्धियां हासिल हुई हैं।

युननान प्रांत के अभौतिक सांस्कृतिक विरासत संरक्षण-केंद्र के प्रभारी श्री नी चिंग-ख्वी ने कहा कि देश भर में लोकप्रिय `युननान की छाप` नामक एक भव्य गीतनृत्य में अल्पसंख्यक जातियों की जो विचित्र कलाएं दर्शाई गई हैं,उन से युननान प्रांत में जातीय संस्कृतियों के संरक्षण में प्राप्त उपलब्धियों की झलक मिल सकती है।युननान प्रांत में जातीय संस्कृतियों के संरक्षण के साथ-साथ इन संस्कृतियों से जुड़े उद्योग का भी जोरदार विकास किया जा रहा है।`युननान की छाप` नामक जैसे जातीय गीतनृत्य का व्यापारिक मंचन किया जाने और जातीय संस्कृतियों के संरक्षण को स्थानीय आर्थिक विकास से जोड़ा जाने की अर्थतंत्र व संस्कृति के साथ-साथ विकास में अच्छी भूमिका हो रही है।श्री नी चिंग-ख्वी ने कहाः

"अल्पसंख्यक जातियों की संस्कृतियों का संरक्षण करने का हमारा तरीका लचीला व विकासशील है और सामाजिक प्रगति के नियमों से मेल खाता है।संरक्षण का तरीका एक सा नहीं होना चाहिए यानि कि अपरिवर्तनीय नहीं होना चाहिए। अपरिवर्तनीय तरीका पुराना और पिछड़ा पड़ चुका है।अगर पुराने व पिछड़े पड़ चुके तरीके से संरक्षण किया जाए,तो समाज के विकास में बाधा बनी वस्तुओं का संरक्षण किया जाएगा।हमारे संरक्षण-काम का उद्देश्य जातीय संस्कृतियों का बेहतरीन विकास करना ही है। "

युननान प्रांत के अभौतिक सांस्कृतिक विरासत संरक्षण केंद्र के प्रभारी श्री नी चिंग-ख्वी ने यह भी जानकारी दी कि युननान प्रांत की सरकार स्थानीय अल्पसंख्यक जाकियों के इतिहासों व संस्कृतियों से जुड़े संसाधनों की खोज,संरक्षण व विकास के लिए अनेक नीतियां बनाई हैं।मिसाल के तौर पर मई 2002 में युननान प्रांत की जातीय परंपराओं व लोक संस्कृतियों के संरक्षण की नियमावलियां जारी की गईं।यह चीन में अपने तरह का पहला स्थानीय कानून-कायदा है।और इस से युननान में अल्पसंख्यक जातियों के सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण और विकास का काम कानून सम्मत पटरी पर आ गया है।

युननान प्रांत ने चीन में अल्पसंख्यक जातियों की संस्कृतियों के संरक्षण के काम का सर्वेक्षण सब से पहले किया है।सर्वेक्षण से मालूम चला है कि पूरे प्रांत में अल्पसंख्यक जातियों के 10 हजार से अधिक किस्मों के कोई 1 लाख ऐतिहासिक ग्रंथ सुरक्षित हैं।इस के अलावा युननान प्रांत ने 660 लोक ललितकारों को 3 श्रेष्ठ श्रेणियों में बांटकर पुरस्कृत किया है और जातीय संस्कृतियों से जुडे 80 से अधिक पारिस्थितिकी संरक्षण गांव भी स्थापित किए हैं।इन कदमों से युननान में अल्पसंख्यक जातियों की संस्कृतियों के संरक्षण में कामयाहियां हासिल हुई हैं।

युननान का लीच्यांग नगर बहुत मशहूर है।800 वर्षों से पुराने इस नगर को सन् 1997 में विश्व सांस्कृतिक अवशेषों की नामसूचि में शामिल किया गया।तब से विभिन्न स्तरों की स्थानीय सरकारों और सामाजिक जगतों ने इस नगर के संरक्षण व प्रबंधन में कोई 50 करोड़ य्वान की धन-राशि निवेश की,जिस में से करीब 30 करोड़ य्वान का सीधे तौर पर नगर के जीर्णोद्वार व पुनः निर्माण में किया गया है।इन निवेश से प्राप्त आर्थिक मुनाफे ने इस प्राचीन नगर के पर्यटन-उद्योग के विकास को बड़ा बढावा दिया है।बीते एक दशक में पर्यटन-उद्योग से प्रेरणा लेकर इस नगर का आर्थिक व सामाजिक विकास भी तेजी से हुआ है।लीच्यांग नगर के संरक्षण व प्रबंधन ब्यूरो के प्रधान श्री ह शि-युंग के अनुसार अल्पसंख्यक जातियों की संस्कृतियों के संरक्षण व विकास के बीच रिश्तों का अच्छा निबटारा करना लीच्यांग प्राचीन नगर को तेजी से विकसिक करने की कुंजी है।उन्हों ने कहाः

"हम हमेशा से संरक्षण को प्रथम सिद्धांत मानते रहे हैं,फिर विकास व समुचित प्रयोग की सोच करते हैं।विकास की प्रक्रिया में प्राप्त आर्थिक मुनाफे ने सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण को बढ़ावा दिया है।यहां आर्थिक विकास और सांस्कृतिक संरक्षण एक दूसरे के पूरक हैं।दोनों का अच्छा चक्र बन गया है।संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों का मानना है कि इधर के वर्षों में लीच्यांग नगर में सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण-काम और पर्यटन-उद्योग का साथ-साथ समंवयपूर्वक विकास किया गया है।

श्री ह शि-युंग ने कहा कि आइंदे हम सांस्कृतिक अवशेषों के संरक्षण में संबंधित कानून-कायदों और नियमावलियों का कड़ाई से पालन करते हुए प्रबंधन-काम को मानकीकृत बनाएंगे और वैज्ञानिक अनुसंधान व सेवा-स्तर की उन्नति में ज्यादा कोशिश करेगें। "

अल्कसंख्यक जातियों के सांस्कृतिक उद्योग के विकास के लिए युननान प्रांत की सरकार प्रात के सांस्कृतिक उद्योग-ग्रुपों को अंतरव्यवसायी व अंतरक्षेत्रीय कारोबार करने की प्रेरणा देती है।साथ ही उस ने बड़ी मात्रा में गैरसरकारी पूंजी को सांस्कृतिक क्षेत्र की ओर आकर्षित कराया है।वर्ष 2003 के बाद विख्यात ईनश्यांग कंपनी,पोल्यान पर्यटन व संस्कृति विकास कंपनी और फंगछी मीडिया संस्था जैसे अनेक गैरसरकारी सांस्कृतिक उद्योगधंधे युननान के सांस्कृतिक मंच पर प्रमुख भूमिका अदा कर रहे है।

चीन के प्रमथ आकर्षक प्राचीन कस्बा—हश्वुन युननान प्रांत में ही स्थित है।इस का संरक्षण गैरसरकारी सांस्कृतिक उद्योगधंधे—पोल्यान पर्यटन व संस्कृति विकास कंपनी द्वारा किया जा रहा है।इस कंपनी के महानिदेशक श्री वांग ता-सान के अनुसार हश्वुन प्राचीन कस्बे की परंपरागत संस्कृति के संरक्षण व विकास से अकेले इस कस्बे को ही नहीं,बल्कि आसपास के क्षेत्रों को भी लाभ मिला है।श्री वांग ता-सान ने कहाः

" सांस्कृतिक अवशेषों व जातीय संस्कृतियों के संरक्षण में गैरसरकारी उद्योगधंधों की भागीदारी से रोजगार के मौकों और कर-वसूली में बढोत्तरी हुई है।चीन के प्रथम आकर्षक प्राचीन कस्बा बनने के बाद हश्वनु में पर्यटन व संस्कृति के कार्य का बड़ा विकास हुआ है। और इस से स्थानीय लोगों की आय बहुत बढ़ गई है। "

सांस्कृतिक विलम्बना क्या होती है?

इसे सुनेंरोकेंसांस्कृतिक विलम्बना से इस प्रकार तात्पर्य है संस्कृति के किसी श का दूसरे से पीछे रह जाना। इन्होंने संस्कृति के दो पहलू भौतिक (Material) तथा अभौतिक (Non- material) माने हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि अभौतिक अंश भौतिक से पिछड़ जाता है। इसे ही सांस्कृतिक विलम्बना या ‘पश्चायन’ कहते हैं।

भारतीय संस्कृति से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

इसे सुनेंरोकेंभारतीय संस्कृति से संवेदनाओं की सीख मिलती है। हम सदैव भारतीय संस्कृति की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। लेकिन वास्तविकता में लोग हमें भारतीय संस्कृति के तहत ही जानते हैं। इसलिए हमें भाषा का विरोध नहीं करना चाहिए।

संस्कृति कारन से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसंस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। यह ‘कृ’ (करना) धातु से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ की मूल स्थिति,यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है।

संस्कृति के प्रमुख प्रकार क्या है?

इसे सुनेंरोकेंसंस्कृति दो प्रकार की हो सकती है : (1) भौतिक संस्कृति, तथा (2) अभौतिकसंस्कृति।

इसे सुनेंरोकेंसांस्कृतिक विलम्बना से इस प्रकार तात्पर्य है संस्कृति के किसी श का दूसरे से पीछे रह जाना। संस्कृति के भौतिक अथवा अभौतिक तत्वों में से यदि कोई भी परस्पर पीछे रह जाये तो ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ आ जाती है। वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि अनौतिक संस्कृति की अपेक्षा भौतिक संस्कृति का प्रसार तीव्रता से हो रहा है।

साले संस्कृति से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसवाल: शालेय संस्कृति से क्या समझते हैं? शालेय यह एक ऐसी इकाई है जो आपको विद्यालय की संस्कृत को प्रभावित करने वाले कारणों और आयामों से परिचय कराती हैं। विद्यालय की संस्कृति अभी मान्य, सामूहिक मूल्य, अनुमानों और मान्यताओं से होती हैं।

शालेय शिक्षा क्या है?

इसे सुनेंरोकेंसामाजिक परिवर्तन लाने हेतु : भावी नागरिकों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक व सर्वांगीण विकास के लिए विद्यालयों का कार्य ज्ञान एवं संस्कृति के संरक्षण तथा हस्तांतरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न क्षेत्रों के लिए सृजनशील नेतृत्व को विकसित करना तथा समानता.

विरासत शब्द से आप क्या समझते हैं?

इसे सुनेंरोकेंआसान शब्दों में यदि कहा जाए तो देश के अंदर हमारे चारों ओर मौजूद वैसी सभी वस्तुएं जो हमें हमारे पूर्वजों से प्राप्त हुआ है विरासत कहलाती है. विरासत, देश और लोगों की पहचान को परिलाक्षित करती है. किसी भी व्यक्ति के लिए विरासत उसकी पहचान होती है.

संस्कृति के कितने आयाम होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंसारांश में संस्कृति के दो सै(ांतिक आयाम हंै – भौतिक तथा अभौतिक। जहाँ संज्ञानात्मक तथा मानकीय पक्ष अभौतिक हैं, वहीं भौतिक आयाम उत्पादन बढ़ाने तथा जीवन स्तर को उफपर उठाने के लिए महत्त्वपूणर् हैं।

भारतीय लोक संस्कृति Indian Folk Culture

Bhartiya Lok Sanskriti

भारतीय लोक संस्कृति Bhartiya Lok Sanskriti बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परम्पराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर सम्बंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं।

इन सबकी मिलीजुली संस्कृति, लोक संस्कृति कहलाती है। देखने में इन सबका अलग-अलग रहन-सहन है, वेशभूषा, खान-पान, पहरावा-ओढ़ावा, चाल-व्यवहार, नृत्य, गीत, कला-कौशल, भाषा आदि सब अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते हैं, यही लोक संस्कृति है।

संस्कृति संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है। यह ‘कृ’ (करना) धातु से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं प्रकृति’ की मूल स्थिति,यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो विकृत’ हो जाता है।

मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। सभ्यता संस्कृति का अंग है।

मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं।

मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।

संस्कृति की अवधारणा
संस्कृति जीवन की विधि है। जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा अभौतिक खाता करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं; तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं।

एक सामाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी । उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बंध रखती है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं।

समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं। ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं, जिनमें मानवसमूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं। इन्हें शिल्पकलाकृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है। वास्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्रबिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं।

संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है। यह हमारे साहित्य में, धार्मिक कार्यों में, मनोरंजन और आनन्द प्राप्त करने के तरीकों में भी देखी जा सकती हैं। संस्कृति के दो भिन्न उप-विभाग कहे जा सकते हैं- भौतिक और अभौतिक। भौतिक संस्कृति उन विषयों से जुड़ी है जो हमारी सभ्यता कहते हैं, और हमारे जीवन के भौतिक पक्षों से सम्बद्ध होते हैं, जैसे हमारी वेशभूषा, भोजन, घरेलू सामान आदि। अभौतिक संस्कृति का सम्बध विचारों, आदर्शों, भावनाओं और विश्वासों से है।

संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज तथा एक देश से दूसरे देश में बदलती रहती है। इसका विकास एक सामाजिक अथवा राष्ट्रीय संदर्भ में होने वाली ऐतिहासिक एवं ज्ञान-सम्बंधी प्रक्रिया व प्रगति पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, हमारे अभिवादन की विधियों में, हमारे वस्त्रों में, खाने की आदतों में, पारिवारिक सम्बन्धों में, सामाजिक और धार्मिक रीतिरिवाजों और मान्यताओं में परिचम से भिन्नता है। सच कहें तो, किसी भी देश के लोग अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परम्पराओं के द्वारा ही पहचाने जाते हैं। संस्कृति और सभ्यता संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं। फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं।

संस्कृति और विरासत सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सी बातें अपने पुरखों से सीखी है। समय के साथ उन्होंने अपने अनुभवों से उसमें और वृद्धि की। जो अनावश्यक था, उसको उन्होंने छोड़ दिया। हमने भी अपने पूर्वजों से बहुत कुछ सीखा। जैसे-जैसे समय बीतता है, हम उनमें नए विचार, नई भावनाएं जोड़ते चले जाते हैं और इसी प्रकार जो हम उपयोगी नहीं समझते उसे छोड़ते जाते हैं।

इस प्रकार संस्कृति एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तान्तरिक होती जाती है। जो संस्कृति हम अपने पूर्वजों से प्राप्त करते हैं उसे सांस्कृतिक विरासत कहते हैं। यह विरासत कई स्तरों पर विद्यमान होती है। मानवता ने सम्पूर्ण रूप में जिस संस्कृति को विरासत के रूप में अपनाया उसे ‘मानवता की विरासत’ कहते हैं। एक राष्ट्र भी संस्कृति अभौतिक खाता को विरासत के रूप में प्राप्त करता है जिसे ‘राष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत’ कहते हैं।

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